यादें
चांदनी रात
याद है तुमको वो बगीचे की चांदनी रात,
मेरी आँखें बस तुमको ही देख रही थी,
तुम्हारी चमकती आँखों में सवाल थे,
मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं था,
वो छोटा सा गिफ्ट था मेरे हाथ में,
सोचा वो समझा देगा क्या दिल में है,
पर जैसे तुम वहां होकर भी नहीं थी,
कुछ था जो तुम्हारे माथे का शिकन था,
मैं जैसे अपने में ही खो गया था,
कैसे मैं बना सकता था तुमको अपना,
तुम रुक गयी थी जैसे बहुत दूर ही,
मैं अपनी ही दौड़ में थक गया था,
उस तोहफे की लाज ही रखनी थी,
तुम कैसे यूँही दिल तोड़ सकती थी,
तुमने अपने होठों को बंद रखा,
मैं चाह के भी कुछ न कह सका,
आज अरसा बीत गया उस रात को,
पर यादों में तो जैसे सब कल का है,
कभी फिर याद आएगी जब वो चांदनी रात,
उन चमकती आँखों से बातें जरुर होंगी ||
तुम्हारी याद में
बीते पलों की इस गुनगुनी धूप में,
आज फिर ठहरा हूँ तुम्हारी याद में,
कुछ कहने की जरूरत ही नहीं लगती,
जैसे सब कुछ थम सा गया है कहीं,
तुम्हारी हंसी की खनक भी सुन रहा हूँ,
उन आँखों की मजबूरियां भी देख रहा हूँ,
ऐसा लगता हैं की कुछ कहोगी अभी,
दोनों हाथों की लकीरें भी जोड़ोगी कभी,
संगीत की रागों सरीखी बातें हैं बहुत,
पर मौन ही है, सबका आदि और अंत,
हे स्मिता, तुम्हारी हाँ समझ आ रही है,
पर हे विदुषी, ये चुप्पी कुछ और कह रही है,
यादों में समय कहाँ रुकता है दो पल,
अनेक वर्ष भी जैसे लगते है क्षण भर,
यादों का नाता भी इतना ही होता है,
आँखों में पानी और चेहरा हंसता है,
तुम मौन ही थी, मौन में समा गई,
बाहर बारिश और अंदर धूप भर गई,
कौन कह सकता है कि अब प्यार नहीं,
कुछ कहे बगैर भी पास आती हो हर कहीं,
तुमने ही कहा था, प्यार में बदलते नहीं,
निभा रहे हैं, मैं भी यहीं, तुम भी यहीं,
आत्मबोध
मैं अपने आप से मिलना चाहता हूँ
बाहर अगर इतना सब कुछ है,
तो मेरे भीतर भी बहुत कुछ है,
उस रचियता से मिलना चाहता हूँ,
मैं अपने आप से मिलना चाहता हूँ,
तूफानों में जब नाविक हताश होता है,
दूर छोटी सी रौशनी भी उसे बचा लेती है,
उस प्रकाशस्तम्भ को देखना चाहता हूँ,
मैं अपने आप से मिलना चाहता हूँ,
प्रकृति का एक भी चक्रव्यहू है,
सृजन विसर्जन ही अटूट सत्य है,
उस शाश्वत से मिलना चाहता हूँ,
मैं अपने आप से मिलना चाहता हूँ,
स्वर्ग की कहानी
लो मैं सुनाऊं, एक ऐसी कहानी,
एक सुंदर परी की, मेरी जुबानी,
प्रेममय भाषा, उसकी बातें सुहानी ,
स्वर्णिम आभा, ये स्वर्ग की कहानी, ------1
स्मिता, उत्कंठा लिए आँखें मिलाती,
अधरों से जैसे कोई माला पिरोती,
प्यार से भर दी, मेरे जीवन की झोली
सुंदर मुखड़ा, ये स्वर्ग की कहानी ------ 2
मधुरम सुमनोहरम बातें उसकी,
अथाह प्रेमपाश के सागर जैसी,
नित नूतन हर बात निराली,
रक्तिम कपोल, ये स्वर्ग की कहानी ------ 3
अतिगहन भाव जैसे सुदीर्घ यामिनी,
सुकोमल चित्त और परम पावनि,
सुवासित सौम्या कंचन कामिनी,
अनुपम सौंदर्य, ये स्वर्ग की कहानी, ------ 4
सुसंस्कृत सुपरिष्कृत जैसे हिमानी,
कोमल हृदय से अलाह्दित जहान्वी,
गुणवती भाग्यवती आदर्श भामिनी,
हरपल हर्षदा, ये स्वर्ग की कहानी ------ 5
माँ अन्नपूर्णा का रूप मेरी गृहलक्ष्मी,
अतिथि सत्कार में अग्रणी जैसे ईश्वरी,
सबका ध्यान रखती ममतामयी माधुरी,
शुचि सुभद्रा, ये स्वर्ग की कहानी ------ 6
मौन
पाषाणों से प्रेम करता है कौन,
संगीत से भरी फिर क्यों हो मौन,
लक्ष्य को साधे तुम कूद गई थी,
दर्द में भी सीना ताने खड़ी थी,
डर की भाषा न सीखी न जानी,
साधारण नहीं है तेरी ये कहानी,
अपनों को खोया, फिर भी न टूटी,
तुझको नमन है साहस की देवी,
जो भी गिरा, तुम सहारा बनी थी,
उनकी खुशियाँ तुमसे सजी थी,
दिल में छिपा सागर, देखे भी कौन,
मन की आवाजों में कैसे तू मौन,
प्रेम की राह में चट्टानें पड़ी थीं,
वचन पूर्ति की जिद्द पर बड़ी थी,
आदर्शों का मुकुट सजाये चली थी,
कर्तव्यवेदी में स्वयं आहूत हुई थी,
मुश्किल राहों से प्रेम करता है कौन,
मंजिल की ललकारों में कैसे तू मौन..
माँ
जीवन देती स्व रक्त बूंद से,
फिर जूनून में शरीर निचोड़ती,
क्या निज स्वार्थ है तेरा माँ,
क्योँ दुःख में सुख ढूँढ रही ? -- १
न ऋण उतारने की इच्छाशक्ति,
न दे सकते कोई सुख कभी,
क्या प्रयोजन रह गया तेरा माँ,
क्यों ब्रह्म कार्य में हूत रही ? -- २
तू आत्मा है प्रेम छंद रस की,
और यौवन के दधिची त्याग की,
क्या पराकाष्ठा रह गई तेरी बाकी,
क्यों हरी पालन में शेष रही ? – ३
हर पल पुलकित तेरे स्पर्श से,
फिर शोरगुल में धड़कन भूले माँ,
क्या यशोदा बनकर भी इच्छा बाकी,
अब क्यों पत्थर में अमृत ढूढ़ रही ? – ४
थक गई होगी तेरी बाहें - सांसें,
और प्रेमविहीन मेरा तर्जन,
क्या जीवन का अर्थ न समझी,
क्यों हर युग में माधव खोज रही ? – ५
निर्झरा
झर झर निर्झरा और उन्मादी,
तीव्र वेग से बहती वो प्रपाती,
ओंकार जाप करता जैसे कोई वैरागी,
आत्मतुष्ट या एक निशब्द अघोरी...
भीष्म प्रतिज्ञा की अंतहीन जीवनी,
गाती, इठलाती, चंचल मधुगामिनी,
स्वरांजलि सी आनन्दित किरणकृति,
भावशून्य या आत्मचिंतन की समाधी,
शिव की पूज्य पावस पूण्य धृति,
पारखी, निहारती, सुरमयी विदुषी,
पाषाण को खंड खंड कर दहाड़ती,
नवांकुरों को भी है पालती पोसती,
हर राग, हर रस को अपने में समेटती,
दुःख से सुख से निर्लिप्त वो कुमुदिनी,
उर्जामय आवेगरत श्वेतवर्णी आरोही,
आकार भी निराकार की अद्भुत अनुभूति,
प्रारब्ध की विस्मृति में तुष्ट जैसे योगी,
निरंतर कर्म से अथक प्राणमयी संस्तुति,
विचित्र है अकल्पित है ये संवाद प्रेषणा,
कृष्ण जन्मभूमि की सम्मोहना है निर्झरा